आयुर्वेद का अर्थ औषधि - विज्ञान नही है वरन आयुर्विज्ञान अर्थात '' जीवन-का-विज्ञान'' है

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शनिवार, 18 जून 2016

रेप केसेस और अपराध के पीछे का सच


मैं बहुत दिनों  अपने पाठकों से इस विषय पर बात करने के लिए सोच रही थी कि आज एक बहाना भी मिल गया। आज हिन्दुस्तान के  सम्पादकीय पेज पर राजेन्द्र धोड़पकर जी का लेख निकला है कि -"यह क्रूरता कहाँ से आती है " . इस विषय पर जब भी समाज के लोगों के बीच बहस होती है और जो निदान निकाला जाता है उनको सुनकर ऐसा ही  लगता है जैसे किसी पेड़ की हरियाली लौटाने के लिए उसकी ऊपरी पत्तियों और टहनियों पर पानी डाला जा रहा है ,जड़ों की तरफ कोई देख ही नहीं रहा। आइये देखते हैं कि इसकी जड़ें कहाँ हैं ---

वैसे आपको यह जान कर  आश्चर्य  होगा  कि इसके लिए हम ही  जिम्मेदार हैं।
पहला  कारण  -- जब भी कोई  नारी गर्भवती होती  है तो आयुर्वेद में उससे शारीरिक सम्बन्ध  बनाने की स्पष्ट मनाही की जाती है।
उसको अत्यधिक  आदर और सुख देने की बात कही जाती है। मगर ऐसा  होता नहीं। इसका बिलकुल विपरीत होता है।पुराणों में अनेक कथाओं में आपने पढ़ा होगा कि गर्भवती नारी को देवता खुद  प्रणाम करते हैं।और समाज में ??  गर्भवती नारी का मन शिशु से पूरी तरह जुड़ चुका होता है ,उसके द्वारा महसूस किया गया  सुख  दुःख और प्रत्येक स्वाद, एहसास और ज्ञान गर्भस्थ शिशु को मिलता है। अभिमन्यु की कथा तो आपको याद ही होगी। आप  जब अपनी गर्भवती पत्नी के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाते हैं तो वस्तुतः यह नैतिकता  के विरुद्ध होता है क्योंकि आप पत्नी के साथ  नहीं वरन गर्भस्थ शिशु के साथ सम्बन्ध बना रहे  होते हैं. पत्नी का मन और तन दोनों ही  न ऐसे सम्बन्ध की चाह रखता है ,न ही अनुकूल होता है। इस सम्बन्ध का  बैड इफेक्ट शिशु के शारीरिक और मानसिक विकास पर पड़ता है। संयम और नैतिकता  कंट्रोल करने वाला हारमोन यहीं डिसबैलेंस हो  जाता  है। शिशु को पहली शिक्षा  ही शारीरिक आकर्षण और सम्बन्ध की मिलती है। 

दूसरा कारण --- जब भी नारी गर्भवती होती है तो उसको छोटी -बड़ी अनेक दिक्कतें शुरू हो जाती हैं। फिर हर दिक्कत के लिए हम इंजेक्शन ,टैबलेट आदि अंग्रेजी  दवाओं का सहारा लेते हैं। जिनके  साइड इफेक्ट जरूर होते हैं। जबकि ये सारी दिक्कतें रसोई में मौजूद चीजों से ही दूर हो सकती हैं जिनका कोई साइड  इफेक्ट नहीं होता। ये अंग्रेजी दवाएं गर्भस्थ शिशु  शारीरिक ,मानसिक विकास को प्रभावित करती हैं। उदाहरण के लिए  जिन महिलाओं ने गर्भवस्था में  पेट दर्द और सर दर्द के लिए दवाएं ज्यादा  ली होती हैं  उनके बच्चों के बाल कम उम्र में ही सफ़ेद होने लगते हैं और आई साइट कमजोर हो जाती  है। किसी किसी बालक को दोनों ही समस्याएं आती हैं। इम्युनिटी तो सभी बच्चों की  जरूर कम हो  जाती है ,नतीजा ये होता है कि पैदाइश के दो दिन बाद से ही डॉक्टर्स और हॉस्पिटल के चक्कर लगने शुरू हो जाते हैं। फिर इंजेक्शन, सीरप और टैबलेट का सिलसिला शुरू हो जाता है। नवजात शिशु को 6 माह तक माता के दूध के सिवा सारी चीजें देने की मनाही होती है और  उस नाजुक कोमल शरीर में भारी भारी केमिकल एंटी बायोटिक रूप में पहुँचने लगते हैं। जो शिशु में  हार्मोनल डिसबैलेंस पैदा करते हैं और बच्चे समय  से पहले ही जवान होने लगते हैं। हम लोग सारा दोष इंटरनेट ,मूवीज,और टी वी के सिर मढ़ कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। जबकि छोटे बच्चों के ज्यादातर  रोग तो मालिश ,सिकाई ,काढ़े  ही दूर हो जाते हैं। अनावश्यक रूप  से शरीर में पहुंची  ये दवाएं बच्चों की एकाग्रता छीन लेती हैं ,धैर्य धारण करने की क्षमता खत्म कर देती हैं। उत्तेजना और क्रोध बढ़ा भी देती हैं। सोचिये हम किस तरह के नागरिक  तैयार कर रहे  हैं। 

तीसरा कारण -- गर्भस्थ शिशु माता की संवेदनाओं को ग्रहण करता है ,इसीलिये गर्भवती को खुश रखने को कहा गया है ,उसके अच्छे  खाने पीने ,घूमने,अच्छे  साहित्य पढ़ने और सत्संग पर जोर दिया जाता है ,जिससे शिशु शांत,प्रसन्नचित्त और नैतिकता से भरपूर हो। हमारे समाज में होता है जस्ट उलटा।  सास, नन्द  झगड़े ,तकरार गर्भवती को या तो विद्रोह से भर देते हैं या अंजाना डर पैदा करते हैं। फलतः शिशु आक्रामक या दब्बू या कॉन्फिडेंस -लेस पैदा होता है।  रही सही कसर टीवी सीरियल के परिवार  तोड़ूं  दांव -पेंच पूरी  कर देते हैं।(याद कीजिये मूवी -"तीस मार खाँ ") जब नींव ही दुर्गुणों और दुष्प्रभावों से रक्त - रंजित हो तो उस पर शान्ति और सद्भावना की फसल उगेगी कैसे ?

ये दुष्प्रभाव उच्च कोटि की शिक्षा,पारिवारिक संस्कार और समाज के दबाव में दब सकते हैं ,और अनुकूल वातावरण शैतानियत को हावी होने से रोक सकता है। लेकिन ये बहुत मुश्किल है। आज कल की शिक्षा ज्ञान नहीं देती। मिड डे  मील और नंबरों की होड़ तक सीमित रह गयी है ,डिग्री खरीद ली जाती है ,ज्ञान मिलता नहीं। परिवार एकल रह गए हैं और बचा समाज ;इंटरनेट ,वीडिओ गेम ,मोबाइल में १२ से 15  घंटे बिताने वाले किशोर वहां तो उच्च कोटि की मार धाड़ , नशे आदि आनंद का ककहरा सीखते हैं। इंसानियत की शिक्षा के स्रोत ही दुर्लभ हो गए हैं। तो नैतिकता पनपेगी कैसे। लेकिन फिर भी कहा जा सकता  है कि बीज अच्छा होगा तो प्रतिकूल  वातावरण में भी मीठी फसल देगा। इसलिए बीजों की क्वालिटी निर्धारित करना ही हमारे हाथ में है। 

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